डा प्रवीण चोपड़ा
उस की आखिरी ई-मेल थी ....यह डाक विभाग की अ-व्यवस्था है ...
मैं कैसे कह दूं ...हां, हां.....यह ठीक है। जिस बात से मैं इत्तेफ़ाक ही नहीं रखता उस बात पर कैसे किसी की हां में हां मिला दूं। मैंने उस ई-मेल का जवाब ही नहीं दिया।
कैसे कह दें यार डाक विभाग ऐसा है, वैसा है, डाकिया ठीक से काम नहीं करता.....नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है, सब कुछ सही चल रहा है। साठ के पार की उम्र हो चुकी है, लेिकन कभी भी डाक विभाग से कोई शिकायत नहीं रही ....हो भी क्यों, शायद एक दो बार कभी कोई चिट्ठी न मिली हो ....न तो न सही, लेकिन अब तो याद भी नहीं कि कब ऐसे हुआ होगा। और खास कर यह बात होती भी यह ख़त न मिलने की बात, ख़त का जवाब न पहुंचने के उलाहने, ये सभी के सभी होते उन रिश्तेदारों के साथ ही हैं जो थोड़े से खुराफ़ाती टाइप के होते थे ....जो बात बात पर चिट्ठीयों के जवाब न मिलने के गिले-शिकवे करते दिखते थे ....इसलिए ठीक से यह कह पाना कि उन को सच में ख़त नहीं मिला या फिर वे यूं ही कह रहे हैं.....क्योंकि यह बात प्रामाणिक नहीं है तो फिर डाकिया बाबू को क्यों कुछ भी बुरा-भला कहने की हिमाकत की जाए....
आगे लिखने से पहले मैं एक गीत सुन लेता हूं ....मुझे बहुत पसंद है....शायद आप को भी अच्छा लगे, देखिए तो .....ख़त लिख दे सांवरिया के नाम बाबू....
मेरी उम्र के लोगों के लिए डाक, डाकिया, डाकखाना ....ये सब बहुत अहमियत रखते थे....ज़िंदगी के हर मौके पर डाकिये ने साथ दिया..खुशी हो कि हो गमी, पढ़ाई हो या कोई प्रवेश परीक्षा या नौकरी मिलने की चिट्ठियां ....सब कुछ वही तो लेकर आया....हम लोगों के लिए बहुत नज़दीकी करेक्टर रहा है, डाकिया बाबू .....अभी भी जहां कहीं भी आते जाते मुझे कोई भी डाकिया दिख जाता है तो मैं उसे देख कर मुस्कुराता हूं तो उधर से फ़ौरन मुस्कुराहट का जवाब आ जाता है। और फिर आगे कईं बार मैं ऐसे ही पूछ लेता हूं कि डाकिया साहब, क्या अभी भी लोग चिट्ठीयां लिखते हैं.....फिर जब उस का बढ़िया सा जवाब मिलता है तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। परसों मैं अपने चेंबर से बाहर निकला तो एक डाकिया दिखा....मैंने पूछा...जी, डाकिया साहब, हमारी कोई चिट्ठी नहीं आई?.....कईं बार डाकिये से ऐसे ही बात करने का बहाना होता है ....हंस कर कहने लगा ...नहीं, डॉ साहब, आप की तो कोई चिट्ठी नहीं है। (वह तो मुझे पता ही था, अब इस उम्र में कौन लिखेगा मुझे चिट्ठीयां....😎)....
और हां, एक बात तो मैं बतानी भूल ही गया .....लोग किसी जगह पर जा कर शेल्फी प्वाईंट ढूंढते हैं, लेकिन मुझे जहां भी डाक-पेटी दिख जाती है, मैं उस के साथ खड़ा हो कर एक फोटो ज़रूर खिंचवा लेता हूं ....कईं बार पास की ठेलिया से चाय पीते पीते पूछ भी लेता हूं कि क्या यहां से डाक निकलती है रोज़। इस का जवाब हां में मिलने पर बहुत अच्छा लगता है और सोचता हूं कि मैं भी किसी दिन इस में एक चिट्ठी डालूंगा...
एक बात और ...मुझे वे सभी फिल्मी गीत बेहद पसंद हैं, जिन में चिट्ठी-पत्री का ज़िक्र होता है .....बहुत ज़्यादा पसंद हैं.....और इस लिस्ट में सब से ऊपर है ...डाकिया डाक लाया वाला गीत ....इसे मैं एक साथ बीसियों बार सुन सकता हूं अभी भी ....और इस में मज़ेदार बात यह है कि इस ३-४ मिनट के गाने में सारी ज़िंदगी की खुशियां और गम जैसे ठूंस दिए गये हों....यहां तक कि गांव के पोखर में नहा रही एक महिला डाकिये से अपने बिरह का दुख भी ब्यां कर देती है ....एक दम सुपर-डुपर गीत ....
डाकिया डाक लाया ....यह टॉिपक मेरे दिल के इतना पास है कि मैंने सृजनात्मक लेखन के अंतर्गत अपना पहला लेख इसी नाम से लिखा था कोई २००० के आस पास ....२४ साल पहले....इसे केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने मांगा था ....सभी नवलेखकों से ....इसी लेख के आधार पर मेरी लेखन यात्रा शुरू हुई ...इस से पहले मैं १० वर्ष तक सिर्फ शुष्क से मेडीकल एवं डेंटल विषयों पर ही लिखता था ....मुझे क्रिएटिव राइटिंग का क ख ग नहीं पता था....हिंदी निदेशालय की तरफ से मुझे कुछ और नवलेखकों के साथ १५ दिन के लिए जोरहाट में एक नवलेखक शिविर में भेजा गया ....जहां नामचीन लेखक हमें सुबह से शाम लेखन की बारीकियां समझाते थे ....वस, वहां से बात समझ में आ गई ....उस के बाद भी एक अन्य नवलेखक शिविर मेें जाने का मौका मिला .....बस फिर यह लिखने-पढ़ने का सिलसिला एक बार चला तो फिर चल निकला ....😎....इस पहले लेख में मैंने डाकिये से जुड़ी अपनी सारी यादें लिख डालीं....किस तरह से दादी के कांपते हाथों से लिखे हुआ जब ५ पैसे वाला पोस्टकार्ड हमारे घर पहुंचता था तो कैसे १-२ दिन खुशियां छा जाती थीं.....बार बार पढ़ा जाना, बार बार उसमें से दादी के हाथों का लिखा अपने लिए प्यार-ढूंढना....
अरे यार, मैं भी उस आखिरी ई-मेल के सुस्पैंस से थोडा़ परदा तो हटाऊं......दरअसल मैं कुछ महीने पहले जब दिल्ली किताब मेले पर गया तो मैंने हिंदी की दो नामचीन मासिक पत्रिकाओं की सदस्यता ले ली ...और महंगी वाली ली....जिस में वे हर महीने हमें पत्रिका रजिस्टर्ड डाक से भेजते हैं....इतने महीने वक्त पर मिल रही थी ....इस महीने नहीं मिली....मैंने यही सोचा कि बारिश की वजह से इधर उधर हो गई होगी.....कोई बात नहीं, पढ़ने के लिए वैसे क्या कोई कमी है ...कुछ और पढ़ लेंगे .... इतने में एक दिन ई-मेल दिखा कि आप की इस माह की पत्रिका वापिस आ गई है, साथ में उस की फोटो थी ....लिखा था ...अनक्लेम्ड। मुझे यही लगा कि डाकिया नया होगा.....मैंने उन को बताया कि पता चैक करें, उस के नीचे फोन लिख दिया करें, तो उन्होंने कहा कि हां, सब कुछ ठीक है ........और फिर आखिरी जुमला......यह डाक विभाग की अ-व्यवस्था है ...
जी नहीं, कोई अव्यवस्था नहीं है, कोई भी कारण रहा होगा....घर बंद होगा, वॉचमैन नहीं मिला होगा.....कुछ भी ....
और हां, अगर गलती हुई भी है तो हम नहीं परवाह करते ऐसी किसी भी गलती की.....जितना पुराना हमारा और डाकिये का साथ है, उस पर एक पत्रिका तो क्या, दर्जनों ऐसी पत्रिकाएं कुरबान हैं......हम ने उस का संघर्ष देखा है, तपती दुपहरी में पसीने से लथपथ, बारिश हो, कोहरा हो, या हो आंधी तूफ़ान, साईकिल पर सवार हमने उसे देखा हमेशा .....और घर में सब को खास हिदायत थी कि डाकिया जब भी आए उसे पानी ज़रूर पिला के ही भेजना है .....वैसे वह रिवायत अभी भी चालू है, मैं पूछता ज़रूर हूं लेकिन अकसर डाकिया बाबू अब धन्यवाद कह कर मना कर देता है।
वैसे जैसे ऊपर आशा पारेख वाले गीत में जैसे डाकिया अपना बंडल चैक कर रहा कि सांवरिया की कोई चिट्ठी तो नहीं आई....बिल्कुल ऐसे ही जब वह कभी हम लोगों को रास्ते में मिल जाता तो घर का पता पूछ कर जब बंडल चैक करता तो सच में सांसे जैसे थम सी जाती कि पता नहीं .....अब इस के खज़ाने में से क्या निकल आए....नानी की या दादी की चिट्ठी, या मौसी, मामा, बुआ, चाची का लिफ़ाफा, बडे़भाई का या बड़ी बहन का राखी वाला लिफाफा.....अगर कुछ होता और वह हमें थमा देता तो हमारे बंाछें ऐसे खिल जातीं जैसे कोई लाटरी लग गई हो ....
१९७७ में रिलीज़ हुई फिल्म - पलकों की छांव में ...का यह गीत ...वाह वाह वाह .....जितनी बार कहूं कम है ....
डाक विभाग को बहुत बहुत धन्यवाद और हमेशा आभार प्रकट करता हूं अभी भी राखी डाकिया लेकर आते है।
ReplyDeleteपंकज उदास का वो गाना सुन लो तो आज भी आंख भर जाता है ।
आज के समय में जैसे व्हाट्स ऐप पर चैट करते है वैसे ही चिट्ठी लिखकर हम अपनी सारी बाते किया करते थे।
चिट्ठी के वजह से डाकिया के साथ अमनापन सा हो जाता था ।
बहुत बहुत धन्यवाद सर आप का इतना सुंदर ब्लॉग पढ़ कर डाकिया को धन्यवाद कहने का मौका मिला।
Wow 👌 amazing
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