Saturday, 10 August 2024

सीधा सादा डाकिया...जादू करे महान


निदा फ़ाज़ली की शेयरो-शायरी पढ़ना मुझे बहुत भाता है …बहुत आसान अल्फ़ाज़ में ज़िदगी का गूढ़ ज्ञान मिल जाता है …इसलिए बार बार पढ़ने को जी करता है …अब अल्फ़ाज़ तो कितने आसान हैं ..


सीधा सादा डाकिया, जादू करे महान

एक ही थैले में भरे, आंसू और मुस्कान….


लेकिन चंद शब्दों में डाकिया बाबू का रुतबा कैसे बुलंद कर दिया….वैसे तो उस का किरदार ही ऐसा है….एक पांच पैसे का पोस्टकार्ड हमारे हाथ तक पहुंचाने के लिए वह कितनी मेहनत करता है …बहुत साल हो गए हैं एक बार मैंने किसी अखबार में पढ़ा था …कि एक पांच पैसे का पोस्ट कार्ड को उस के पते तक पहुंचाने के लिए सरकार के कुछ 1 रूपए 31 पैसे खर्च हो जाते हैं ….लेकिन कुछ बातें मुनाफ़ा-हानि से परे की होती हैं सरकार के लिए …सामाजिक दायित्व ….जैसे 5-10 रूपए का लोकल ट्रेन का टिकट ले कर कोई भी मुंबई के एक छोर से दूसरे छोर पर पहुंच जाता है…


हां, आगे लिखने से पहले यह भी साफ कर दूं कि यह जो मैं पांच पैसे का पोस्टकार्ड लिख रहा हूं ….मैंने असल में वह वक्त देखा …जब हम लोग घर से पच्चीस पैसे लेकर जाते (पोली कहते थे हम उसे पंजाबी में, या चवन्नी भी कहते थे……आप को शायद याद होगा कि बहुत साल हो गए चवन्नी का चलन खत्म हो गया है, अब नहीं बनती चवन्नियां …) …लेकिन आज से 50-55 साल पहले इस चवन्नी का मतलब था …पांच पांच पैसे के दो पोस्टकार्ड और एक पंद्रह पैसे का अंतर्देशीय पत्र (जिसे फोल्ड कर के गोंद से कम और थूक से ज़्यादा चिपकाया जाता था …वैसे मुझे बहुत बुरा लगता था ऐसा करना …जब थोड़ी अकल आ गई तो पानी से गीला कर के चिपकाने लग गया….दिक्कत यह थी भाई कि उन दिनों घरों में यह गोंद वोंद की शीशी कोई नहीं रखता था …इसलिए या तो उसे डाकखाने में जा कर वहां से लेवी (गोंद का पंजाबी शब्द) से चिपकाओ….नहीं तो ऐसे ही डाक बक्से के हवाले कर दो …


मैं अकसर सोचता हूं कि आज कल हम लोग पोस्ट कार्ड को तो छोड़िए, अंतर्देशीय और साधारण लिफाफे भेजते हुए भी क्यों इतना डरते हैं ….मुझे यह कभी समझ में आया नहीं ….इतना आखिर क्या है हमारे पास छिपाने के लिए को कोई राज़ खुल जाएंगे …मैं बहुत बार इस के बारे में सोचता हूं …..


पोस्ट कार्ड के पाठकों की संख्या - 


मुझे कल ख्याल आ रहा था कि एक पोस्ट कार्ड  भी कितने लोगों के पढ़ने के काम आता होगा …पहले तो बहुत से लोग खुद लिख नहीं पाते थे …आस पड़ोस का बच्चा लिखता था, और साथ में उस के दूसरे बच्चों के टोली बैठी रहती थी (मुझे यह अच्छी तरह से पता है कि मैं भी मोहल्ले के लिए अवैतनिक लैटर राइटर का काम स्कूल के दिनों में किया करता था …मेरी बड़ी डिमांड थी, लोग इंतज़ार करते थे कि मुझ से ही ख़त लिखवाना है, क्योंकि उन के रिश्तेदार उन को मिलने पर कहा करते थे कि उसी से लिखवाया करो ख़त जिस से पिछली बार लिखवाया था…अच्छा लिखता है …)...आज इतने बरसों बाद -कम से कम 50 बरसों बाद जब याद करता हूं तो सोचता हूं कि मेेरे लेखक बनने की नींव तो शायद उन्हीं दिनों तैयार हो रही थी …मुझे सब समझ आने लगा था कि किस खबर को कैसे लिखना है …और मेरे लिए इतना ही काफी था कि मुझे ख़त लिखते वक्त एक कुर्सी पर बिठाया जाता था ….मुझे एक बड़ी अच्छी सी फील आती थी सच कह रहा हूं ….


चलिए, एक तो जो लिख रहा है, उस को तो पता ही है कि पूरे खानदान का क्या स्क्रीन-प्ले है …लेकिन उस उम्र में किसी परवाह होती है इन सब में घुसने की ….चिट्ठी खत्म हुई, बात खत्म, वापिस गिल्ली-डंडा शुरू …कंचों का महासंग्राम शुरू….


हां, पोस्टकार्ड लिख दिया…पहुंच गया गंतव्य स्थान पर ….अब डाकिये ने उसे उस पर लिखे पते पर पहुंचाना है …डाकिये से अगर रास्ते में अगर उस गली में रहने वाला कोई शख्स टकरा गया तो वह पोस्टकार्ड उसे ही थमा देता …कि तुम बबलू खान के पड़ोसी ही हो न, उस के यहां पहुंचा देना। अब वह पोस्ट कार्ड बबलू खान के पास पहुंचने से पहले एक आध बार, आधा अधूरा देख ही लिया जाता, पढ़ भी लिया जाता अगर लिखावट पढ़ने लायक होती तो ….और एक बात कईं बार डाकिया चिट्ठी-लिफाफा पड़ोस में भी दे जाता और पड़ोसी उसे केशव को देने से पहले पढ़ ही लेता ….कार्ड को पढ़ना भी क्या कोई पढ़ना होता, वह तो खुल्लम खुल्ला खुद ही अपने आप को पढवाने के लिए बेताब है, लेकिन कईं बार अंतर्देशीय लिफाफा भी किसी का पढ़ने का जुगाड़ हो जाता ….वही जैसा मैंने ऊपर लिखा था कि लेवी का चक्कर होता था सारा, अगर वह लेवी कमज़ोर निकली तो वह लिफाफा अपने आप खुल जाता ….और लिखा हुआ दिख जाता ….और अपने आप को खुद ही पढ़वा लेता ….क्या है न यह जो जिज्ञासा नामक वॉयरस है न, यह बहुत अद्भुत है ….बेकार में किसी की ज़िंदगी में, किसी परिवार में क्या चल रहा है, इस को पता करने से क्या हासिल….


अभी पोस्ट कार्ड को तो असल पढ़ना शुरु होगा….मैं अपने घर की मिसाल देता हूं…दादी का पोस्ट कार्ड आया..हिंदी में लिखा हुआ…पिता जी हिंदी पढ़ नहीं पाते थे, पहले तो मां उन को सुना देती। फिर वह पोस्टकार्ड को तकिये के नीचे रख देते…..शाम को चाय पीते वक्त फिर सुनने की इच्छा होती तो वही कार्ड हमारे आगे कर दिया जाता …हम फिर से पढ़ते ….कोई कमी रह जाती तो उसे फिर से हमारी बड़ी बहन को भी पढ़ने के लिए कहा जाता। फिर उसे संभाल कर रख लिया जाता…..


कार्ड का जीवन चक्र अभी कहां खत्म हुआ ….दो चार दिनों के बाद उसे एक तार में पिरो कर किसी खिड़की पर टांग दिया जाता ….यह हमारे यहां तो नहीं होता था लेकिन नानी के घर में टार पर हमें हमेशा बीस तीस खत टंगे हुए दिखते ….और हम खाली वक्त क्या करते, उसी तार से खत निकाल कर उन सब को पढ़ने लग जाते …..


अभी आप को समझ आ रहा होगा कि लिखने की आदत तो मुझे लोगों का अवैतनिक लैटर राइटर बनने से लग गई और पढ़ने की आदत इस तरह से ढेरों ख़त एक साथ पढ़ने से लग गई …


और एक बात ….कार्ड बहुत तरह के आते थे. एक तो हमारे स्कूल से हमारे रिजल्ट का रिपोर्ट कार्ड भी पोस्ट कार्ड के रूप में ही आता था …और उस पर घर से हस्ताक्षर करवा के वापिस मास्साब को जमा करना होता था…जो कहता था मास्साब पोस्ट कार्ड पर घर में पहुंचा ही नहीं, उस की ठुकाई पक्की थी …वैसे दो चार दिन में मास्साब भी भूल-भूला जाते थे ….


एक कार्ड होता था जिस पर किसी की रस्म-क्रिया की खबर आती थी - तारीख समय और जगह लिखी होती थी। मां उसे पढ़ कर उसी दिन फाड़ कर कचरे में डाल देती थी कि इस तरह के कार्ड घर में नहीं रखते। मुझे समझ नहीं आई कभी यह बात। लेकिन इस बात को अच्छे से फॉलो किया जाता था …


एक कार्ड होता था जो किसी की शादी ब्याह की तारीख तय होने पर आता था …उस पर केसर का रंग लगा होता था ….मेरे कहने का मतलब कलर-कोडिंग ….ताकि उसे देख कर अनपढ़ भी समझ ले कि कोई खुशी की खबर है इस पर लिखी हुई। वैसे तो रस्म-क्रिया आदि वाले कार्ड पर भी कोई रंग छिड़का होता था, वह मुझे याद नहीं ….अब मैं भी बूढ़ा हो चुका हूं ….कितनी बातें याद रखूं कब तक ….जितनी याद हैं लिखता रहता हूं ताकि ये सब बातें आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेजी जा सकें…..

हम जैसे लोग नहीं लिखेंगे तो उन्हें कौन बताएगा कि आज से बीस पच्चीस वर्ष पहले एक मेघदूत पोस्टकार्ड भी हुआ करता था…. सामान्य कार्ड उन दिनों 50 पैसे का था तो यह 25 पैसे में मिलता था …इस की आधी तरफ़ किसी सरकारी स्कीम का विज्ञापन होता था …और दूसरी तऱफ आप लिख सकते थे ….

आज भी जब मैं मेघदूत पोस्ट कार्ड को याद कर रहा था तो मुझे बीस साल पहले एक बुजुर्ग याद आ गए जो हर किसी को मेघदूत पोस्टकार्ड भेजा करते थे …साल गिरह पर, शादी की सालगिरह पर, और किसी भी खुशी के मौके पर ….पूरी तबीयत से लिखा हुआ पोस्ट कार्ड होता था ….


वैसे मेरे पिता जी भी लिखते पोस्टकार्ड पूरी तबीयत से थे, इंगलिश में और किसी किसी को उर्दू में …विल्सन का जॉटर पैन उन के पास होता था…सच में पोस्टकार्ड हो या अंतर्देशीय उस का कचूमर निकाल देते थे …लिख लिख कर ….कल ही की यादें लगती हैं कि मैं डाइनिंग टेबल के एक किनारे पर बैठा हुआ …चार लाइन की इंगलिश की कापी में टीचर का निबंध लिख रहा हूं इंगलिश में, होम वर्क कर रहा हूं और ठीक सामने वे ख़त लिखने में मसरूफ़ हैं…ख़त लिख कर मटर निकालने हुए उन का चाय की चुस्कियां लेना भी बहुत याद आता है ….इतनी बढ़िया चिट्ठियां लिखते थे कि जब हमारे सभी सगे-संबंधी किसी मौके पर मिलते तो मेरी मां से हमारी चाची-ताई अकसर कहतीं …अमृतसर वाले पापा जी का ख़त आता है तो जैसे अख़बार पढ़ लेते हैं….सब कुछ पूरी तफ़सील से लिखते हैं….


कहां गए खत, कहां गए खत लिखने वाले और कहां गए पढ़ने वाले ….अब तो मेरे जैसे आर्ट कलेक्टर को ये खत एंटीक की दुकानों पर दिखते हैं…हैरान हूं कि किसी ने तो दिए ही होंगे जो इन दुकानों पर बिक रहे होते हैं…और मैं भी अकसर जब दिखते हैं खरीद लेता हूं ….पूरा पता लिखा हुआ…लेकिन मैंने कभी किसी का कंटेंट किसी के साथ शेयर नहीं किया ….हां, ब्लॉग में कुछ बातें लिख देता हूं …पूरी गोपनीयता बरकरार रखते हुए …यहां तक कि मैं बेटे को भी उन ख़तों की फोटो तक नहीं लेने देता….कोई खत ऐसे हैं जिसमें किसी ने किसी वैवाहिक विज्ञापन को देख कर वधू के परिवार में कोई क्रिएटिव सा ख़त लिखा है, कुछ में रेल की टिकटें रिज़र्व करवाने को कहा गया है ..मथुरा से बंबई चिट्ठी लिख कर ..क्योंकि पहले बंबई से चलने वाली गाडि़यों की टिकट बंबई ही से बुक होती थी …और यह 1980के दशक के मध्य तक सिलसिला चलता रहा था …किसी में शादी की तारीख पक्की होने की बात है और किसी में घर परिवार की बातें ….लेकिन सच बात यह है कि वह भी आज के दौर के लिए एक साहित्य ही है ….बहुत विश्वास से ऐसा लिख रहा हूं…..


चिट्ठीयां हमारे पास भी हैं ….1995 की मेरे पिता जी लिखी हुईं….उन की आखिरी चिट्ठी भी है जुलाई 1995 की लिखी हुई …मां की चिट्ठीयां भी हैं कईं ….कभी देखते हैं तो बहुत कुछ याद आ जाता है ….खास कर के पिता जी की चिंता करने का आदत …जब किसी की चिट्ठी वक्त पर न आती थी ….जब कोई घर से गया है तो वहां से जब तक उस के पहुंचने का ख़त न आ जाता, परेशान से रहते…..दफ्तर से घर आते ही, अपना साईकिल खड़ा करते करते मां से पूछ लेते ….ख़त आया ए?....और देखते देखते उन की देखा देखी हमें भी यह आदत पड़ गई ….घर आते ही किसी का ख़त आने की ख़बर जानने की बात ……


सो बातों की बात ….वह ज़माना भी बहुत बढ़िया था, इस फोन-वोन का कोई टंटा नहीं..सब कुछ ख़तोकिताबत से ही होता था ….हैरान हूं उस दौर में लोगों के सब्र का जब ख्याल आता था तो ….


वैसे मैंने अपने पिता जी के सुकून के लिए एक रास्ता निकाल लिया था …मैं जब भी घर से बाहर कहीं भी जाता तो ट्रेन में बैठे बैठे ही कुशलता से पहुंचने का ख़त लिख लेता और स्टेशन पर पहुंचते ही उसे लैटर-बक्से में सरका देता …उन को एक दो दिन में वह ख़त पहुंच जाता और उन को इत्मीनान हो जाता …..बाद में सब लोग मेरी इस बात पर बहुत हंसते थे ….


मां को तो जब हम लोग हर रोज़ चिट्ठी के बारे में पूछते तो वह कईं बार हंस देती कि मेरा दिल करता है कि हम लोग खुद ही चिट्ठी लिख कर डाक पेटी में डाल आया करें, क्योंकि अब और तो कोई चिट्ठीयां लिखता नहीं ….


मेघदूत पोस्टकार्ड के बारे में मैंंने लिखा …मैं अभी सोच रहा था कि पोस्ट के नीचे कौन सा गाना एम्बेड करूं …अचानक ख्याल आया …मेघदूत आया …प्रेम संदेशा लाया…..


लेकिन जब यू-टयूब पर देखा तो इस के बोल तो कुछ और ही निकले …प्रेमदूत आया…प्रेम संदेशा लाया ….यह गीत मुझे इंसाफ चाहिये का 1983 में आई फिल्म का था …बहुत अच्छा लगता है, आज मेघदूत को याद करने के चक्कर में याद नहीं कितने बरसों बाद यह याद आ गया ….


Saturday, 3 August 2024

ऐसे कैसे कह दें डाकिये को भला-बुरा ?

 डा प्रवीण चोपड़ा

उस की आखिरी ई-मेल थी ....यह डाक विभाग की अ-व्यवस्था है ...

मैं कैसे कह दूं ...हां, हां.....यह ठीक है। जिस बात से मैं इत्तेफ़ाक ही नहीं रखता उस बात पर कैसे किसी की हां में हां मिला दूं। मैंने उस ई-मेल का जवाब ही नहीं दिया। 

कैसे कह दें यार डाक विभाग ऐसा है, वैसा है, डाकिया ठीक से काम नहीं करता.....नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है, सब कुछ सही चल रहा है। साठ के पार की उम्र हो चुकी है, लेिकन कभी भी डाक विभाग से कोई शिकायत नहीं रही ....हो भी क्यों, शायद एक दो बार कभी कोई चिट्ठी न मिली हो ....न तो न सही, लेकिन अब तो याद भी नहीं कि कब ऐसे हुआ होगा। और खास कर यह बात होती भी यह ख़त न मिलने की बात, ख़त का जवाब न पहुंचने के उलाहने, ये सभी के सभी होते उन रिश्तेदारों के साथ ही हैं जो थोड़े से खुराफ़ाती टाइप के होते थे ....जो बात बात पर चिट्ठीयों के जवाब न मिलने के गिले-शिकवे करते दिखते थे ....इसलिए ठीक से यह कह पाना कि उन को सच में ख़त नहीं मिला या फिर वे यूं ही कह रहे हैं.....क्योंकि यह बात प्रामाणिक नहीं है तो फिर डाकिया बाबू को क्यों कुछ भी बुरा-भला कहने की हिमाकत की जाए....

आगे लिखने से पहले मैं एक गीत सुन लेता हूं ....मुझे बहुत पसंद है....शायद आप को भी अच्छा लगे, देखिए तो .....ख़त लिख दे सांवरिया के नाम बाबू....

मेरी उम्र के लोगों के लिए डाक, डाकिया, डाकखाना ....ये सब बहुत अहमियत रखते थे....ज़िंदगी के हर मौके पर डाकिये ने साथ दिया..खुशी हो कि हो गमी, पढ़ाई हो या कोई प्रवेश परीक्षा या नौकरी मिलने की चिट्ठियां ....सब कुछ वही तो लेकर आया....हम लोगों के लिए बहुत नज़दीकी करेक्टर रहा है, डाकिया बाबू .....अभी भी जहां कहीं भी आते जाते मुझे कोई भी डाकिया दिख जाता है तो मैं उसे देख कर मुस्कुराता हूं तो उधर से फ़ौरन मुस्कुराहट का जवाब आ जाता है। और फिर आगे कईं बार मैं ऐसे ही पूछ लेता हूं कि डाकिया साहब, क्या अभी भी लोग चिट्ठीयां लिखते हैं.....फिर जब उस का बढ़िया सा जवाब मिलता है तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। परसों मैं अपने चेंबर से बाहर निकला तो एक डाकिया दिखा....मैंने पूछा...जी, डाकिया साहब, हमारी कोई चिट्ठी नहीं आई?.....कईं बार डाकिये से ऐसे ही बात करने का बहाना होता है ....हंस कर कहने लगा ...नहीं, डॉ साहब, आप की तो कोई चिट्ठी नहीं है। (वह तो मुझे पता ही था, अब इस उम्र में कौन लिखेगा मुझे चिट्ठीयां....😎)....

और हां, एक बात तो मैं बतानी भूल ही गया .....लोग किसी जगह पर जा कर शेल्फी प्वाईंट ढूंढते हैं, लेकिन मुझे जहां भी डाक-पेटी दिख जाती है, मैं उस के साथ खड़ा हो कर एक फोटो ज़रूर खिंचवा लेता हूं ....कईं बार पास की ठेलिया से चाय पीते पीते पूछ भी लेता हूं कि क्या यहां से डाक निकलती है रोज़। इस का जवाब हां में मिलने पर बहुत अच्छा लगता है और सोचता हूं कि मैं भी किसी दिन इस में एक चिट्ठी डालूंगा...

एक बात और ...मुझे वे सभी फिल्मी गीत बेहद पसंद हैं, जिन में चिट्ठी-पत्री का ज़िक्र होता है .....बहुत ज़्यादा पसंद हैं.....और इस लिस्ट में सब से ऊपर है ...डाकिया डाक लाया वाला गीत ....इसे मैं एक साथ बीसियों बार सुन सकता हूं अभी भी ....और इस में मज़ेदार बात यह है कि इस ३-४ मिनट के गाने में सारी ज़िंदगी की खुशियां और गम जैसे ठूंस दिए गये हों....यहां तक कि गांव के पोखर में नहा रही एक महिला डाकिये से अपने बिरह का दुख भी ब्यां कर देती है ....एक दम सुपर-डुपर गीत ....  

डाकिया डाक लाया ....यह टॉिपक मेरे दिल के इतना पास है कि मैंने सृजनात्मक लेखन के अंतर्गत अपना पहला लेख इसी नाम से लिखा था कोई २००० के आस पास ....२४ साल पहले....इसे केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने मांगा था ....सभी नवलेखकों से ....इसी लेख के आधार पर मेरी लेखन यात्रा शुरू हुई ...इस से पहले मैं १० वर्ष तक सिर्फ शुष्क से मेडीकल एवं डेंटल विषयों पर ही लिखता था ....मुझे क्रिएटिव राइटिंग का क ख ग नहीं पता था....हिंदी निदेशालय की तरफ से मुझे कुछ और नवलेखकों के साथ १५ दिन के लिए जोरहाट में एक नवलेखक शिविर में भेजा गया ....जहां नामचीन लेखक हमें सुबह से शाम लेखन की बारीकियां समझाते थे ....वस, वहां से बात समझ में आ गई ....उस के बाद भी एक अन्य नवलेखक शिविर मेें जाने का मौका मिला .....बस फिर यह लिखने-पढ़ने का सिलसिला एक बार चला तो फिर चल निकला ....😎....इस पहले लेख में मैंने डाकिये से जुड़ी अपनी सारी यादें लिख डालीं....किस तरह से दादी के कांपते हाथों से लिखे हुआ जब ५ पैसे वाला पोस्टकार्ड हमारे घर पहुंचता था तो कैसे १-२ दिन खुशियां छा जाती थीं.....बार बार पढ़ा जाना, बार बार उसमें से दादी के हाथों का लिखा अपने लिए प्यार-ढूंढना....

अरे यार, मैं भी उस आखिरी ई-मेल के सुस्पैंस से थोडा़ परदा तो हटाऊं......दरअसल मैं कुछ महीने पहले जब दिल्ली किताब मेले पर गया तो मैंने हिंदी की दो नामचीन मासिक पत्रिकाओं की सदस्यता ले ली ...और महंगी वाली ली....जिस में वे हर महीने हमें पत्रिका रजिस्टर्ड डाक से भेजते हैं....इतने महीने वक्त पर मिल रही थी ....इस महीने नहीं मिली....मैंने यही सोचा कि बारिश की वजह से इधर उधर हो गई होगी.....कोई बात नहीं, पढ़ने के लिए वैसे क्या कोई कमी है ...कुछ और पढ़ लेंगे .... इतने में एक दिन ई-मेल दिखा कि आप की इस माह की पत्रिका वापिस आ गई है, साथ में उस की फोटो थी ....लिखा था ...अनक्लेम्ड। मुझे यही लगा कि डाकिया नया होगा.....मैंने उन को बताया कि पता चैक करें, उस के नीचे फोन लिख दिया करें, तो उन्होंने कहा कि हां, सब कुछ ठीक है ........और फिर आखिरी जुमला......यह डाक विभाग की अ-व्यवस्था है ...

जी नहीं, कोई अव्यवस्था नहीं है, कोई भी कारण रहा होगा....घर बंद होगा, वॉचमैन नहीं मिला होगा.....कुछ भी .... 

और हां, अगर गलती हुई भी है तो हम नहीं परवाह करते ऐसी किसी भी गलती की.....जितना पुराना हमारा और डाकिये का साथ है, उस पर एक पत्रिका तो क्या, दर्जनों ऐसी पत्रिकाएं कुरबान हैं......हम ने उस का संघर्ष देखा है, तपती दुपहरी में पसीने से लथपथ, बारिश हो, कोहरा हो, या हो आंधी तूफ़ान,  साईकिल पर सवार हमने उसे देखा हमेशा .....और घर में सब को खास हिदायत थी कि डाकिया जब भी आए उसे पानी ज़रूर पिला के ही भेजना है .....वैसे वह रिवायत अभी भी चालू है, मैं पूछता ज़रूर हूं लेकिन अकसर डाकिया बाबू अब धन्यवाद कह कर मना कर देता है। 

वैसे जैसे ऊपर आशा पारेख वाले गीत में जैसे डाकिया अपना बंडल चैक कर रहा कि सांवरिया की कोई चिट्ठी तो नहीं आई....बिल्कुल ऐसे ही जब वह कभी हम लोगों को रास्ते में मिल जाता तो घर का पता पूछ कर जब बंडल चैक करता तो सच में सांसे जैसे थम सी जाती कि पता नहीं .....अब इस के खज़ाने में से क्या निकल आए....नानी की या दादी की चिट्ठी, या मौसी, मामा, बुआ, चाची का लिफ़ाफा, बडे़भाई का या बड़ी बहन का राखी वाला लिफाफा.....अगर कुछ होता और वह हमें थमा देता तो हमारे बंाछें ऐसे खिल जातीं जैसे कोई लाटरी लग गई हो ....

१९७७ में रिलीज़ हुई फिल्म - पलकों की छांव में ...का यह गीत ...वाह वाह वाह .....जितनी बार कहूं कम है ....

 

सीधा सादा डाकिया...जादू करे महान

निदा फ़ाज़ली की शेयरो-शायरी पढ़ना मुझे बहुत भाता है …बहुत आसान अल्फ़ाज़ में ज़िदगी का गूढ़ ज्ञान मिल जाता है …इसलिए बार बार पढ़ने को जी करता...