निदा फ़ाज़ली की शेयरो-शायरी पढ़ना मुझे बहुत भाता है …बहुत आसान अल्फ़ाज़ में ज़िदगी का गूढ़ ज्ञान मिल जाता है …इसलिए बार बार पढ़ने को जी करता है …अब अल्फ़ाज़ तो कितने आसान हैं ..
सीधा सादा डाकिया, जादू करे महान
एक ही थैले में भरे, आंसू और मुस्कान….
लेकिन चंद शब्दों में डाकिया बाबू का रुतबा कैसे बुलंद कर दिया….वैसे तो उस का किरदार ही ऐसा है….एक पांच पैसे का पोस्टकार्ड हमारे हाथ तक पहुंचाने के लिए वह कितनी मेहनत करता है …बहुत साल हो गए हैं एक बार मैंने किसी अखबार में पढ़ा था …कि एक पांच पैसे का पोस्ट कार्ड को उस के पते तक पहुंचाने के लिए सरकार के कुछ 1 रूपए 31 पैसे खर्च हो जाते हैं ….लेकिन कुछ बातें मुनाफ़ा-हानि से परे की होती हैं सरकार के लिए …सामाजिक दायित्व ….जैसे 5-10 रूपए का लोकल ट्रेन का टिकट ले कर कोई भी मुंबई के एक छोर से दूसरे छोर पर पहुंच जाता है…
हां, आगे लिखने से पहले यह भी साफ कर दूं कि यह जो मैं पांच पैसे का पोस्टकार्ड लिख रहा हूं ….मैंने असल में वह वक्त देखा …जब हम लोग घर से पच्चीस पैसे लेकर जाते (पोली कहते थे हम उसे पंजाबी में, या चवन्नी भी कहते थे……आप को शायद याद होगा कि बहुत साल हो गए चवन्नी का चलन खत्म हो गया है, अब नहीं बनती चवन्नियां …) …लेकिन आज से 50-55 साल पहले इस चवन्नी का मतलब था …पांच पांच पैसे के दो पोस्टकार्ड और एक पंद्रह पैसे का अंतर्देशीय पत्र (जिसे फोल्ड कर के गोंद से कम और थूक से ज़्यादा चिपकाया जाता था …वैसे मुझे बहुत बुरा लगता था ऐसा करना …जब थोड़ी अकल आ गई तो पानी से गीला कर के चिपकाने लग गया….दिक्कत यह थी भाई कि उन दिनों घरों में यह गोंद वोंद की शीशी कोई नहीं रखता था …इसलिए या तो उसे डाकखाने में जा कर वहां से लेवी (गोंद का पंजाबी शब्द) से चिपकाओ….नहीं तो ऐसे ही डाक बक्से के हवाले कर दो …
मैं अकसर सोचता हूं कि आज कल हम लोग पोस्ट कार्ड को तो छोड़िए, अंतर्देशीय और साधारण लिफाफे भेजते हुए भी क्यों इतना डरते हैं ….मुझे यह कभी समझ में आया नहीं ….इतना आखिर क्या है हमारे पास छिपाने के लिए को कोई राज़ खुल जाएंगे …मैं बहुत बार इस के बारे में सोचता हूं …..
पोस्ट कार्ड के पाठकों की संख्या -
मुझे कल ख्याल आ रहा था कि एक पोस्ट कार्ड भी कितने लोगों के पढ़ने के काम आता होगा …पहले तो बहुत से लोग खुद लिख नहीं पाते थे …आस पड़ोस का बच्चा लिखता था, और साथ में उस के दूसरे बच्चों के टोली बैठी रहती थी (मुझे यह अच्छी तरह से पता है कि मैं भी मोहल्ले के लिए अवैतनिक लैटर राइटर का काम स्कूल के दिनों में किया करता था …मेरी बड़ी डिमांड थी, लोग इंतज़ार करते थे कि मुझ से ही ख़त लिखवाना है, क्योंकि उन के रिश्तेदार उन को मिलने पर कहा करते थे कि उसी से लिखवाया करो ख़त जिस से पिछली बार लिखवाया था…अच्छा लिखता है …)...आज इतने बरसों बाद -कम से कम 50 बरसों बाद जब याद करता हूं तो सोचता हूं कि मेेरे लेखक बनने की नींव तो शायद उन्हीं दिनों तैयार हो रही थी …मुझे सब समझ आने लगा था कि किस खबर को कैसे लिखना है …और मेरे लिए इतना ही काफी था कि मुझे ख़त लिखते वक्त एक कुर्सी पर बिठाया जाता था ….मुझे एक बड़ी अच्छी सी फील आती थी सच कह रहा हूं ….
चलिए, एक तो जो लिख रहा है, उस को तो पता ही है कि पूरे खानदान का क्या स्क्रीन-प्ले है …लेकिन उस उम्र में किसी परवाह होती है इन सब में घुसने की ….चिट्ठी खत्म हुई, बात खत्म, वापिस गिल्ली-डंडा शुरू …कंचों का महासंग्राम शुरू….
हां, पोस्टकार्ड लिख दिया…पहुंच गया गंतव्य स्थान पर ….अब डाकिये ने उसे उस पर लिखे पते पर पहुंचाना है …डाकिये से अगर रास्ते में अगर उस गली में रहने वाला कोई शख्स टकरा गया तो वह पोस्टकार्ड उसे ही थमा देता …कि तुम बबलू खान के पड़ोसी ही हो न, उस के यहां पहुंचा देना। अब वह पोस्ट कार्ड बबलू खान के पास पहुंचने से पहले एक आध बार, आधा अधूरा देख ही लिया जाता, पढ़ भी लिया जाता अगर लिखावट पढ़ने लायक होती तो ….और एक बात कईं बार डाकिया चिट्ठी-लिफाफा पड़ोस में भी दे जाता और पड़ोसी उसे केशव को देने से पहले पढ़ ही लेता ….कार्ड को पढ़ना भी क्या कोई पढ़ना होता, वह तो खुल्लम खुल्ला खुद ही अपने आप को पढवाने के लिए बेताब है, लेकिन कईं बार अंतर्देशीय लिफाफा भी किसी का पढ़ने का जुगाड़ हो जाता ….वही जैसा मैंने ऊपर लिखा था कि लेवी का चक्कर होता था सारा, अगर वह लेवी कमज़ोर निकली तो वह लिफाफा अपने आप खुल जाता ….और लिखा हुआ दिख जाता ….और अपने आप को खुद ही पढ़वा लेता ….क्या है न यह जो जिज्ञासा नामक वॉयरस है न, यह बहुत अद्भुत है ….बेकार में किसी की ज़िंदगी में, किसी परिवार में क्या चल रहा है, इस को पता करने से क्या हासिल….
अभी पोस्ट कार्ड को तो असल पढ़ना शुरु होगा….मैं अपने घर की मिसाल देता हूं…दादी का पोस्ट कार्ड आया..हिंदी में लिखा हुआ…पिता जी हिंदी पढ़ नहीं पाते थे, पहले तो मां उन को सुना देती। फिर वह पोस्टकार्ड को तकिये के नीचे रख देते…..शाम को चाय पीते वक्त फिर सुनने की इच्छा होती तो वही कार्ड हमारे आगे कर दिया जाता …हम फिर से पढ़ते ….कोई कमी रह जाती तो उसे फिर से हमारी बड़ी बहन को भी पढ़ने के लिए कहा जाता। फिर उसे संभाल कर रख लिया जाता…..
कार्ड का जीवन चक्र अभी कहां खत्म हुआ ….दो चार दिनों के बाद उसे एक तार में पिरो कर किसी खिड़की पर टांग दिया जाता ….यह हमारे यहां तो नहीं होता था लेकिन नानी के घर में टार पर हमें हमेशा बीस तीस खत टंगे हुए दिखते ….और हम खाली वक्त क्या करते, उसी तार से खत निकाल कर उन सब को पढ़ने लग जाते …..
अभी आप को समझ आ रहा होगा कि लिखने की आदत तो मुझे लोगों का अवैतनिक लैटर राइटर बनने से लग गई और पढ़ने की आदत इस तरह से ढेरों ख़त एक साथ पढ़ने से लग गई …
और एक बात ….कार्ड बहुत तरह के आते थे. एक तो हमारे स्कूल से हमारे रिजल्ट का रिपोर्ट कार्ड भी पोस्ट कार्ड के रूप में ही आता था …और उस पर घर से हस्ताक्षर करवा के वापिस मास्साब को जमा करना होता था…जो कहता था मास्साब पोस्ट कार्ड पर घर में पहुंचा ही नहीं, उस की ठुकाई पक्की थी …वैसे दो चार दिन में मास्साब भी भूल-भूला जाते थे ….
एक कार्ड होता था जिस पर किसी की रस्म-क्रिया की खबर आती थी - तारीख समय और जगह लिखी होती थी। मां उसे पढ़ कर उसी दिन फाड़ कर कचरे में डाल देती थी कि इस तरह के कार्ड घर में नहीं रखते। मुझे समझ नहीं आई कभी यह बात। लेकिन इस बात को अच्छे से फॉलो किया जाता था …
एक कार्ड होता था जो किसी की शादी ब्याह की तारीख तय होने पर आता था …उस पर केसर का रंग लगा होता था ….मेरे कहने का मतलब कलर-कोडिंग ….ताकि उसे देख कर अनपढ़ भी समझ ले कि कोई खुशी की खबर है इस पर लिखी हुई। वैसे तो रस्म-क्रिया आदि वाले कार्ड पर भी कोई रंग छिड़का होता था, वह मुझे याद नहीं ….अब मैं भी बूढ़ा हो चुका हूं ….कितनी बातें याद रखूं कब तक ….जितनी याद हैं लिखता रहता हूं ताकि ये सब बातें आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेजी जा सकें…..
हम जैसे लोग नहीं लिखेंगे तो उन्हें कौन बताएगा कि आज से बीस पच्चीस वर्ष पहले एक मेघदूत पोस्टकार्ड भी हुआ करता था…. सामान्य कार्ड उन दिनों 50 पैसे का था तो यह 25 पैसे में मिलता था …इस की आधी तरफ़ किसी सरकारी स्कीम का विज्ञापन होता था …और दूसरी तऱफ आप लिख सकते थे ….
आज भी जब मैं मेघदूत पोस्ट कार्ड को याद कर रहा था तो मुझे बीस साल पहले एक बुजुर्ग याद आ गए जो हर किसी को मेघदूत पोस्टकार्ड भेजा करते थे …साल गिरह पर, शादी की सालगिरह पर, और किसी भी खुशी के मौके पर ….पूरी तबीयत से लिखा हुआ पोस्ट कार्ड होता था ….
वैसे मेरे पिता जी भी लिखते पोस्टकार्ड पूरी तबीयत से थे, इंगलिश में और किसी किसी को उर्दू में …विल्सन का जॉटर पैन उन के पास होता था…सच में पोस्टकार्ड हो या अंतर्देशीय उस का कचूमर निकाल देते थे …लिख लिख कर ….कल ही की यादें लगती हैं कि मैं डाइनिंग टेबल के एक किनारे पर बैठा हुआ …चार लाइन की इंगलिश की कापी में टीचर का निबंध लिख रहा हूं इंगलिश में, होम वर्क कर रहा हूं और ठीक सामने वे ख़त लिखने में मसरूफ़ हैं…ख़त लिख कर मटर निकालने हुए उन का चाय की चुस्कियां लेना भी बहुत याद आता है ….इतनी बढ़िया चिट्ठियां लिखते थे कि जब हमारे सभी सगे-संबंधी किसी मौके पर मिलते तो मेरी मां से हमारी चाची-ताई अकसर कहतीं …अमृतसर वाले पापा जी का ख़त आता है तो जैसे अख़बार पढ़ लेते हैं….सब कुछ पूरी तफ़सील से लिखते हैं….
कहां गए खत, कहां गए खत लिखने वाले और कहां गए पढ़ने वाले ….अब तो मेरे जैसे आर्ट कलेक्टर को ये खत एंटीक की दुकानों पर दिखते हैं…हैरान हूं कि किसी ने तो दिए ही होंगे जो इन दुकानों पर बिक रहे होते हैं…और मैं भी अकसर जब दिखते हैं खरीद लेता हूं ….पूरा पता लिखा हुआ…लेकिन मैंने कभी किसी का कंटेंट किसी के साथ शेयर नहीं किया ….हां, ब्लॉग में कुछ बातें लिख देता हूं …पूरी गोपनीयता बरकरार रखते हुए …यहां तक कि मैं बेटे को भी उन ख़तों की फोटो तक नहीं लेने देता….कोई खत ऐसे हैं जिसमें किसी ने किसी वैवाहिक विज्ञापन को देख कर वधू के परिवार में कोई क्रिएटिव सा ख़त लिखा है, कुछ में रेल की टिकटें रिज़र्व करवाने को कहा गया है ..मथुरा से बंबई चिट्ठी लिख कर ..क्योंकि पहले बंबई से चलने वाली गाडि़यों की टिकट बंबई ही से बुक होती थी …और यह 1980के दशक के मध्य तक सिलसिला चलता रहा था …किसी में शादी की तारीख पक्की होने की बात है और किसी में घर परिवार की बातें ….लेकिन सच बात यह है कि वह भी आज के दौर के लिए एक साहित्य ही है ….बहुत विश्वास से ऐसा लिख रहा हूं…..
चिट्ठीयां हमारे पास भी हैं ….1995 की मेरे पिता जी लिखी हुईं….उन की आखिरी चिट्ठी भी है जुलाई 1995 की लिखी हुई …मां की चिट्ठीयां भी हैं कईं ….कभी देखते हैं तो बहुत कुछ याद आ जाता है ….खास कर के पिता जी की चिंता करने का आदत …जब किसी की चिट्ठी वक्त पर न आती थी ….जब कोई घर से गया है तो वहां से जब तक उस के पहुंचने का ख़त न आ जाता, परेशान से रहते…..दफ्तर से घर आते ही, अपना साईकिल खड़ा करते करते मां से पूछ लेते ….ख़त आया ए?....और देखते देखते उन की देखा देखी हमें भी यह आदत पड़ गई ….घर आते ही किसी का ख़त आने की ख़बर जानने की बात ……
सो बातों की बात ….वह ज़माना भी बहुत बढ़िया था, इस फोन-वोन का कोई टंटा नहीं..सब कुछ ख़तोकिताबत से ही होता था ….हैरान हूं उस दौर में लोगों के सब्र का जब ख्याल आता था तो ….
वैसे मैंने अपने पिता जी के सुकून के लिए एक रास्ता निकाल लिया था …मैं जब भी घर से बाहर कहीं भी जाता तो ट्रेन में बैठे बैठे ही कुशलता से पहुंचने का ख़त लिख लेता और स्टेशन पर पहुंचते ही उसे लैटर-बक्से में सरका देता …उन को एक दो दिन में वह ख़त पहुंच जाता और उन को इत्मीनान हो जाता …..बाद में सब लोग मेरी इस बात पर बहुत हंसते थे ….
मां को तो जब हम लोग हर रोज़ चिट्ठी के बारे में पूछते तो वह कईं बार हंस देती कि मेरा दिल करता है कि हम लोग खुद ही चिट्ठी लिख कर डाक पेटी में डाल आया करें, क्योंकि अब और तो कोई चिट्ठीयां लिखता नहीं ….
मेघदूत पोस्टकार्ड के बारे में मैंंने लिखा …मैं अभी सोच रहा था कि पोस्ट के नीचे कौन सा गाना एम्बेड करूं …अचानक ख्याल आया …मेघदूत आया …प्रेम संदेशा लाया…..
लेकिन जब यू-टयूब पर देखा तो इस के बोल तो कुछ और ही निकले …प्रेमदूत आया…प्रेम संदेशा लाया ….यह गीत मुझे इंसाफ चाहिये का 1983 में आई फिल्म का था …बहुत अच्छा लगता है, आज मेघदूत को याद करने के चक्कर में याद नहीं कितने बरसों बाद यह याद आ गया ….